Tuesday 6 November 2012

// इन आसुओं को आज तो बेहने दे //



बड़े  मुद्द्त से सहज कर रखा हे
इन आसुओं को आज तो बेहने दे//
मुझे मेरे हिस्से की ज़िन्दगी
आज तो कुछ जीने दे//

छुपाये रखे हे कई राज़ ता-उम्र अपने सीने में
आ ,आ बेठ दम-भर मेरे पास,
इन राज़ को हमराज़ होने दे//

तुझे समझ कहा हे
इन आसुओं की,
बेमोल .. बेभाव हे ये आसु
आज ये बहते हे तो इन्हें बहने दे//

बड़े मुद्दत से सहज कर रखा हे
इन आसुओं को आज तो बेहने दे//
मुझे मेरे हिस्से की ज़िन्दगी
आज तो कुछ जीने दे//

~विपुल ~

Sunday 16 September 2012

~~ नीम का पेड़ ~~


वो घर में सबसे बड़ा , सबसे बुज़ुर्ग था
हा वो घर के कोने में लगा नीम का पेड़ था//

सब कुछ देखा उसने ..
सब कुछ सहा उसने ..
बरसात हवा और पानी //

अविचल खड़ा रहा वो हम सब की ऊँगली थामे 
हमारे दुःख , हमारे सुख सबका साक्षी था वो //
हमारे दुखो पर दया के लिए 
ईश्वर से प्रार्थी था वो //

उसने देखी थी घर में नन्ही किलकारियां 
और देखे थे मातम के आसू भी ..
उसके ह्रदय में थी ख़ुशी 
और संवेदना भी ..

पर अब उसका कद कुछ घटने लगा था
किसी बीमार बूढ़े की तरह खटकने लगा था ..

अवशाक्ताओ की चादर बढ़ने लगी थी 
नयी ईमारत बनाने की तैय्यारी चलने लगी थी ..


वो घर में सबसे बड़ा , सबसे बुज़ुर्ग था
हा वो घर के कोने में लगा नीम का पेड़ था//


~विपुल ~

Wednesday 5 September 2012

त्यौहार

जीवन एक त्यौहार बने
फाग बसंती मधुमास बने..

रंग बने , खुशबु बने
शबनम सा एहसास बने..

जीवन एक झरने सा कल- कल बहता
उन्मुक्त अल्हड उल्हास बने... 

पिहू, पपीहे सा कलरव 
जीवन का हर गान बने... 

जीवन एक त्यौहार बने ...

दीप जले हर अंधियारे में 
दीप शिखा हर रत बने.. 
भूके की रोटी बने ..
मरते का जीवन दान बने.. 
बच्चे सी मीठी मुस्कान बने..

जीवन एक त्यौहार बने..

फाग बसंती मधुमास बने...

~विपुल ~

Saturday 1 September 2012

// नारी //



देहलीज़ तो देहलीज़ थी ,
कभी लांग न पाई वो ///

कभी खुले आकाश में ,
उड़ न पाई वो ///

कभी गिरी, कभी उठी ,
कभी सहमी रही वो ///

दो कदम भी अपने कदम से ,
चल न पाई वो ///

करती रही सब के लिए सब कुछ ,
पर दुनिया हे बड़ी शातिर ये समझ न पाई वो ///

ख्वाब बुने थे कुछ ,
सपने देखे थे उसने भी ///

केसे टूटे,केसे बिखरे 
ये समझ न पाई वो ///

कभी माँ ...कभी बहन ...
कभी बीवी बनी वो ...

ये दर या वो दर ,
हे कौनसा उसका घर??
 ये समझ न पाई वो ///

देहलीज़ तो देहलीज़ थी ,
कभी लांग न पाई वो ///

~विपुल ~

Wednesday 22 August 2012

// शब्द //

एक बार अक्षरों में सभा हुई की हम अकेले रहते हे तो हमारा कोई औचित्य नहीं रहता, हमें संयुक्त रहना चाहिये  / पर इसका प्रभार किस पर सौपा जाये??

इस पर भारी बहस  हुई / सभी अक्षरों पर सहमति बनाने का विचार हुआ/ इसके लिए सर्व प्रथम (स ,श ,ष)"श " को चुना गया क्यूंकि "स" से समर्पण होता हें  / जब तक समर्पण न हो तब तक कोई भी कार्य संभव नहीं हें  / 

फिर "ब " अक्षर पर सहमति बनी / "ब " से बहार (सृजन) और बर्बाद/ सभी ने कहा इसमें  सृजन  और विद्वन्श  की शक्ति हे इसलिए इसे भी चुना जाये और किस-किस को इसका प्रभार सौपा जाये इसपर बहस जारी थी/

फिर किसी ने सुझाव दिया की इन दोनों का संयुक्त प्रयास तभी सार्थक हे जब इनके साथ "द " अक्षर भी रहे, क्यूंकि "द " से दर्पण होता हे/ इनके कार्यो को यही दर्शाएगा  / इन तीनो को संयुक्त किया जाये/ 

लेकिन "श "और "द " अक्षर ने इसका विरोध किया की "ब " अक्षर हमारे साथ रहेगा तो हमारा प्रभाव कम हो जायेगा/ सभी सिर्फ "ब " अक्षर की प्रशंशा करेंगे / बड़ी विकट समस्या प्रकट हो गई / सभी सोच विचार करने लगे / सभी ने अपने बड़ो को सुझाव देने को कहा , इस पर सभी की सहमति बनी की "ब" अक्षर का प्रभाव कम किया जाये और उन्होंने इसे आधा कर दिया / अब "ब "अक्षर आधा ही रह गया /

 तीनो अक्षरों को क्रमशः एकत्रित किया गया इस से "शब्द " की रचना हुई / सभी अक्षरों में ख़ुशी छाई की अब हमारा कुछ रुतबा बढ़ेगा , हमें कुछ अर्थ मिलेगा ,सभी हमें समझेंगे / "ब " अक्षर के आधे किये जाने से उसकी शक्ति भी आधी हो गई / वो अब "ब " को बहार( सृजन) कर सकता था या बर्बाद (विद्वंश )/ अब अक्षरों की संयुक्त पंक्ति को "शब्द "कहा जाने लगा / इस प्रकार अक्षरों से शब्द का निर्माण हुआ / 

अब शब्दों के आलेख से हम समाज में बहार (ख़ुशी ) लाते हे या बर्बादी (विद्वंश ) ये हमारे विवेक पर ही निर्भर करता हे //

Friday 17 August 2012

माँ

कोयल की कूक सी लगती
 एक भोली सी मीठी माँ //

बर्तन ,चूल्हा , चक्की 

घर के गलियारे सी लगती माँ //

थकी-थकी सी आखें उसकी 

एक पीपल की छाया माँ //

फटी हुई सी धोती पहने 

सुबह काम पर जाती माँ //

बचा-कूचा कुछ सुखा लेकर 

बच्चो को खिलाती माँ //

खुद को भूका रखकर 

सबका ध्यान रखती माँ //

बड़ी -बड़ी  मुश्किलों से भी 

कभी नहीं हरी माँ //

आसुओं से नाम आखें 

सदा चुप रहती माँ //

बच्चो को कभी सुलाती 

थकी -थकी सी लगती माँ //

ममता की फिर नई कहानी 

सदा गूंजती रहती माँ //

~विपुल~

Monday 13 August 2012

Tanhai. . .


Meri uljhan meri tanhai,,
Khud ko dhundti khud ki parchai…

Bikhri zindagi…bikhari batein,,
Samay ke rath par badhti saansein. . .

Ojhal hota dur kinara,,
Bhatkabo ki is uljhan me..dhundu mein bhi ek kinara. . .

Meri bhi had he shyad,,
Jane na ye baat zamana. . .

Meri uljhan meri tanhai,,
Khud ko dhundti khud ki parchai…

~VIPUL~